भारतीय पेटेंट नीति- मुद्दे और चुनौती

भारतीय पेटेंट नीति- मुद्दे और चुनौती


दो दशकों से ज्यादा का समय हो गया है जबसे भारत ने ट्रिप्स समझौते के तहत एक विकसित पेटेंट प्रणाली को अपनाया था। भारत में स्पष्ट सामाजिक और बाजार की समस्याएं होने के बावजूद भी कोई सुस्पष्ट पेटेंट और सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों के ढांचे का आभाव है। अनिवार्य लाइसेंस जारी करने के कई मामलों में भारत में मुकदमेबाजी की गई है। इस समय भारत में कोई भी दीर्घकालिक नीतियों का कोई ढांचा नहीं है, जो की सामाजिक और बाजार की समस्याओं का समाधान ढूंढ  सके। इसकी वजह से भारत में नवाचार और आर्थिक विकास में बाधा उत्पन होती है। पेटेंट और सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के मुद्दे इसलिए जटिल हैं क्योंकि भारत की बड़ी आबादी की वजह से बहुत सारी सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियाँ हैं।

मुद्दे

i. अनिवार्य लाइसेंस

अनिवार्य लाइसेंस का मुद्दा भारत में सबसे विवादास्पद मुद्दा है और 13 दिसंबर 2014 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी अभी तक विवाद का कोई हल नहीं हो पाया है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने बायर की आखिरी याचिका को ख़ारिज कर दिया, जो बायर की आखिरी कोशिश थी भारत में उसके सस्ते जेनेरिक रूपांतर की बिक्री की रोकथाम के लिए। अदालत ने अनिवार्य लाइसेंस के कानून के किसी भी प्रश्न पर कोई आदेश जारी नहीं किया। सार्वजनिक स्वास्थ्य मांगों को पूरा करने के लिए अनिवार्य लाइसेंस को नियमित रूप से भारत में इस्तेमाल किया गया है जिससे की मरीज़ों को सस्ती दवाइयां मिल सके। लेकिन अत्यधिक लाइसेंसिंग से वृद्धि और विकास का नुकसान होता है। यह न केवल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर प्रभाव डालता है परन्तु ये भारतीय दवा कंपनियों को भी बहुत कम प्रोत्साहन प्रदान करता है कोई नयी दवाई की खोज करने के लिए।

ii. धारा ३ (डी) पेटेंट अधिनियम

भारतीय पेटेंट अधिनियम की धारा 3 (डी) कंपनियों को एक कंपाउंड में मामूली बदलाव करके अपनी दवाई पर पेटेंट लेने से रोकता है। मामूली बदलाव करके पेटेंट लेने की प्रक्रिया को “सदाबहार” के रूप में जाना जाता है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में ग्लिवेक (नोवार्टिस) दवा की पेटेंट आवेदन अस्वीकृति को सही ठहराया क्योंकि यह नई दवा नहीं थी, बल्कि  एक ज्ञात कंपाउंड का एक संशोधित संस्करण था । भारतीय न्यायालयों ने हाल के वर्षों में अन्य अंतरराष्ट्रीय दवा निर्माताओं के लिए दिए गए पेटेंट को भी रद्द किये हैं, जिनमें फाइजर, रोश और मर्क शामिल हैं। विशेषज्ञों को ये चिंता है कि यह प्रावधान दवाई बनाने वाली कंपनियों को नई दवाइयों के अनुसंधान और विकास के लिए प्रेरित नहीं करता है। 

iii. सस्ती दवाइयाँ

लोगों को सस्ती दवाइयां कैसे उपलप्ध हो पाएं, यह भारत की सबसे बड़ी चुनौती है. कुछ महीनों से भारत सरकार ने अपने नागरिकों लिए दवाइयाँ किफायती करने के लिए लगातार सैकड़ों दवाएं मूल्य नियंत्रण में शामिल कर ली हैं। एक दीर्घकालिक पेटेंट नीति  को भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य कल्याण को ध्यान  में रखना होगा और पेटेंट मालिकों के हित से संतुलित करना होगा।    

iv. पेटेंट मुकदमेबाजी

भारत में जीवन रक्षा दवाओं के मुद्दे से निपटने के लिए कोई ठोस नीति ढांचे के अभाव की वजह से जीवन रक्षक दवाओं के मुद्दों पर निरंतर मुकदमेबाजी चली जा रही है। किसी भी स्पष्ट नीति ढांचा के अभाव में पेटेंट विवादों के जरिए  सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों के समाधान निकाले जा रहे हैं क्यूंकि जीवन रक्षक दवाओं के मुद्दे को संबोधित करने के लिए कोई ठोस नीति नहीं है।

  चुनौती

जबसे भारत ने एक विकसित पेटेंट प्रणाली को अपने भारतीय कानूनी प्रणाली में अपनाया है तब से नीतिगत मुद्दों ने भारत के नीति विशेषज्ञों को उलझा कर रखा है। ज्यादातर नीतिगत मुद्दे भारतीय अदालतों में लड़े जा चुके हैं। नीतिगत मुद्दों के समाधान ना होने की वजह से बाजार की अर्थव्यवस्था, सामाजिक नुकसान, और आर्थिक विकास और नवपरिवर्तन पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है। यह बहुत जरूरी है की भारत इन नीतिगत मुद्दों को एक निष्पक्ष सोच और प्रयोगसिद्ध सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण के आधार पर बनाए। 

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